साधारण शब्दों में देखा जाये तो कला एक विशेष गुण है। इसका अर्थसामान्य से बढ़कर सोचना, समझना व काम करना है। भगवान विष्णु के सभीअवतार अलग-अलग थे व सभी में अपनी अलग खासियत थी। साधारणमनुष्य में पांच कलाएं और श्रेष्ठ मनुष्य में आठ कलाएं होती हैं। 2-16 कलाएं बोध प्राप्त योगी में पाई जाती है। माना जाता है कि अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है और पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का। उपनिषदों के अनुसार जिस व्यक्ति में16 कलाएं होती है उसकी तुलना भगवान से होती है। कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि जैसे शब्दों को जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से बाहर निकलकर बोध करने लगता है, वही व्यक्ती 16 कलाओं का उपभोग कर सकता है।
चन्द्रमा की सोलह कला : अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। इसी को पूर्णिमा भी कहा जाता है। जिस तरह चंद्रमा की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन की भी भिन्न अवस्थाएं होती है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया हैक्योंकि इसकी अवस्था भी घटती और बढ़ती रहती है। व्यक्ति का शरीर को छोड़कर मोह माया त्याग देना ही प्रथम मोक्ष है। हर व्यक्ति को अपनी तीन स्थितियों का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान है। मनुष्य ने खुद को तीन भागो से आगे कुछ नहीं है। हर एक व्यक्ति में ये 16 कलाएं गुप्त होती है।
इन कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलग– अलग मिलते हैं।
1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।